जगप्रभा

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रविवार, 15 जून 2014

114. फीफा फीवर (के बहाने)

 



12 जून 14
       मैं भाग्यशाली मानता हूँ कि खुद को कि 1986 के वर्ल्ड कप मे मैंने मारादोना को टीवी पर "लाइव" खेलते हुए देखा है! वे बीच में हुआ करते थे, उनके एक तरफ होते थे दुबले-पतले कनीजिया और दूसरी तरफ दाढ़ी वाले बतिस्ता। जहाँ बाकी किसी एक खिलाड़ी को विपक्षी दल का एक ही खिलाड़ी 'कवर' करता था, वहीं मारादोना को विरोधी दल के दो-तीन या चार खिलाड़ी मिलकर कवर करते थे! मौका मिलने पर मारादोना को लंगड़ी मारकर गिराया भी जाता था। फिर भी, मारादोना आगे बढ़कर ऐसा पास देते थे कि उसपर गोल किया जा सके, या फिर खुद ही गोल दाग देते थे।
       '86 में पहला मैच (कैमरून के हाथों) हारकर भी आर्जेण्टिना ने वर्ल्ड कप जीत लिया था। एक पेनाल्टी शूट आउट में मारादोना ने इतने आराम से, इतने धीरे से और इतना सरल गोल किया था कि मुझे ताज्जुब हुआ था।
       क्या दिन (बल्कि रातें) थे वो भी, जब रात देर तक जागकर हमलोग विश्वकप फुटबॉल के मैच देखा करते थे! '86, '90 और '94 तक... उसके बाद तो बस समाचारों में ही मैच देखकर संतुष्ट हो जाता हूँ। इसबार भी शायद न देख पाऊँ। सुबह सात बजे की ट्रेन से मुझे जाना होता है और रात आठ बजे लौटना हो पाता है। वायु सेना के दिनों की बात अलग थी। सुबह साढ़े सात से दोपहर डेढ़ बजे तक का वर्किंग आवर हुआ करता था, दोपहर बाद अक्सर सोने का समय मिल ही जाता था।  
       मारादोना के बाद किसी और खिलाड़ी को मैं पसन्द नहीं कर पाया था। मगर कुछ समय पहले कोलकाता में खेलते हुए मैसी को देखा- टीवी पर। वही रेशमी गति, नपा-तुला पास.. जैसा मारादोना का हुआ करता था।
       फिलहाल वर्तमान विश्वकप का आनन्द उठाया जाय...
       ***
13 जून 14
       12 जून को विश्वकप का पहला मैच था- मेजबान ब्राजील और क्रोशिया के बीच- भारत में डेढ़ बजे रात उसका सीधा प्रसारण होना था। टीवी चैनल का पता हमने पहले ही लगा रखा था- सोनी सिक्स। रात सोने से पहले अभिमन्यु ने पूछा- मैच देखना है? मैंने कहा- अगर डेढ़ बजे आँख खुल गयी, तो देखना है, नहीं तो छोड़ो। तुम्हें अलार्म लगाना है तो लगा लो। पर उसने अलार्म नहीं लगाया, मैंने भी नहीं।
       आधी रात मेरी आँख खुल गयी। मैंने उत्सुकता के साथ समय देखना चाहा कि क्या वाकई रात के डेढ़ बज रहे हैं? सही में, 1:32 का समय हो रहा था। कहने की आवश्यकता नहीं, हमदोनों ने मैच देखा। हालाँकि मुझे सुबह साढ़े पाँच बजे उठकर रोज की तरह तैयार भी होना था- दफ्तर जाने के लिए।
       बहुत पहले मैंने दो-तीन बार इस प्रयोग को आजमाया है- रात ठीक तभी मेरी नीन्द खुल जाती थी, जब जागने का मैंने सोच रखा होता था। कहते हैं कि गाँधीजी में यह शक्ति थी- वे जितने बजे चाहे, उतने ही बजे रात में उठ सकते थे!
       ***
       लगे हाथ, यह भी बता दूँ कि मैं सिर्फ 'खेलप्रेमी' नहीं हूँ, बल्कि खिलाड़ी रह चुका हूँ। वायु सेना में मैं तैराकी प्रतियोगिताओं में भाग लेता था। '87 से '90 तक हर साल मैंने भाग लिया था और अन्तिम बार '95 में भाग लिया था। तैराकी की सबसे कठिन मानी जाने वाली दो इवेण्ट- 1500 मीटर की फ्री स्टाइल तथा 200 मीटर की बटरफ्लाइ स्ट्रोक में कोच मुझे जरूर उतारते थे। अन्तिम बार तो मेरे शरीर के लचीलेपन को देखते हुए कोच (उस बार कोच एक डाइवर थे) ने मुझे डाइविंग में भी उतार दिया था। जबकि मेरी उम्र उस वक्त 30 से कुछ ही कम थी। वाटर पोलो का हर मैच मैं खेलता था, प्रतियोगिताओं के दौरान और चारों क्वार्टर खेलता था- कभी एक मिनट के लिए भी मुझे रेस्ट नहीं लेने देते थे कोच- पता नहीं, मेरी स्टामिना पर उन्हें कितना भरोसा था! हम एक बार चैम्पियन और एक बार रनर्स-अप भी रहे थे। यह और बात है कि चैम्पियनशिप या रनर्स-अप का खिताब जीतने में मुख्य भूमिका सीनियर खिलाड़ियों की थी- मेरी भूमिका नगण्य थी।
       हमारी पीढ़ी के कस्बाई लोग तालाबों में नहाते हुए ही तैरना सीख चुके होते हैं। मगर वायु सेना के स्वीमिंग पूल में (पूना में एक ऑफ सीजन कैम्प में) जब मैं उतरा, तो कोच की टिप्पणी थी- दिस इज नॉट एट-ऑल स्वीमिंग... दिस इज "कॉण्ट्री" स्टाइल। इस प्रकार, फ्री स्टाइल स्वीमिंग का सही तरीका सीखने में ही मुझे लगभग दो महीने लग गये! तब मेरी उम्र 20 के करीब थी। सोचता हूँ, काश तैराकी का यह गुर सीखने का अवसर मुझे 10 की उम्र में मिला होता...! आज भी सोचता हूँ, काश, हमारे आस-पास इतनी सुविधा होती कि मैं आज कुछ बच्चों को तैराकी के गुर सीखा पाता....
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       रही बात क्रिकेट की, तो बचपन में कभी रुचि रखता था, अब मेरे दिल में इस खेल के प्रति जरा भी सम्मान नहीं है! बल्कि कुछ हद तक नफरत ही है।
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