जगप्रभा

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रविवार, 8 नवंबर 2015

146. कल्याणचक का कायाकल्प

कल्याणचक स्टेशन की वह झोपड़ीनुमा चाय-दूकान... पता नहीं, अब यह है भी है या नहीं. 

       जब हरी दूब के स्थान पर कंक्रीट के फर्श बनने लगे, पेड़ों के स्थान पर टावर बनने लगे, पगडण्डियों के स्थान पर फ्लाइओवर या फुट ओवर ब्रिज बनने लगे, गुमटियों के स्थान पर मॉल बनने लगे, तो इसे "विकास" कहते हैं। मैं विकास का मजाक नहीं उड़ा रहा हूँ। विकास न होता, तो कम्प्यूटर पर यह ब्लॉग कैसे लिखता! बस, मैं अपने मनोभाव को व्यक्त कर रहा हूँ कि मुझे हरी दूब, पेड़ों के छाँव, कच्ची पगडण्डियाँ, गुमटी या झोपड़ीनुमा छोटी-छोटी दूकानें अच्छी लगती हैं। आडम्बर, बनावटीपन से दूर यहाँ अपनापन, सरलता का अहसास होता है। चकाचौंध, भागम-भाग और "फॉर्मलिटी" वाले माहौल में मुझे घुटन-सी महसूस होती है। इसमें मैं कुछ कर भी नहीं सकता, क्योंकि बनाने वाले ने मुझे स्वभाव ही ऐसा दिया है!
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       ट्रेन से बरहरवा से साहेबगंज जाते समय एक छोटा-सा स्टेशन आता है- कल्याणचक। दो-ढाई साल पहले यहाँ प्लेटफार्म के नाम पर हरी दूब से ढकी पटरी से हाथ भर ऊँची जमीन हुआ करती थी। 2012 में इस रूट पर तिनसुकिया मेल दुर्घटनाग्रस्त हो गयी थी। तब अचानक रेलवे के मुख्यालयों में बैठे बड़े साहबों का ध्यान गया कि- अरे, यहाँ तो दस साल पहले पटरियों का "दोहरीकरण" हो जाना चाहिए था! इतनी देर कैसे हुई। (बता दूँ कि यह रेल-लाईन 1860 में बिछी थी और अभी तक "सिंगल" लाईन ही थी। सिर्फ बरहरवा से तीनपहाड़ तक दोहरीकरण हुआ था, उसके बाद काम रुक गया था।)
       खैर, युद्धस्तर पर "दोहरीकरण" का काम शुरु हुआ और मैं यह देखकर चकित रह गया कि सबसे ज्यादा कायाकल्प इस "कल्याणचक" स्टेशन का ही हो रहा था। कारण का मुझे अब तक पता नहीं। उन दिनों मैं "डेली-पैसेन्जरी" करता था- रोज सुबह ट्रेन से जाता था और रात को लौटता था। मेरी आँखों के सामने कल्याण्चक एक सीधे-सादे स्टेशन से लम्बा-चौड़ा स्टेशन बन गया!
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2013 में जिस जगह खड़े होकर मैंने बाँयी तरफ वाली तस्वीरें खींची थीं,
2015 में उसी जगह खड़े होकर उन्हीं कोणों से मैंने दाहिनी तरफ वाली तस्वीरें खींचने की कोशिश की है. 

       कल्याणचक का पुराना स्टेशन-भवन तो खैर, कायम रह गया- नयी पी.आई. बिल्डिंग बगल में बनी थी- काफी पहले। नयी पटरियाँ बिछाने के लिए विपरीत दिशा की जमीन ली गयी-दस-बारह झोपड़ियों वाली एक बस्ती को पीछे हटाकर, मगर सभी स्टेशनों का ऐसा सौभाग्य नहीं था। तालझारी, करणपुरातो, महाराजपुर, मिर्जाचौकी स्टेशनों के पुराने भवनों को तोड़ना पड़ा।  
       ये पुराने भवन सोचिये कि उन्नीसवीं सदी के बने हुए थे और इनकी एक खासियत यह भी होती थी कि हर स्टेशन के भवन की बनावट अलग-अलग थी। इलाके के अशिक्षित लोग रात के अन्धेरे में भी स्टेशन भवन की एक झलक देखकर समझ जाते थे कि ट्रेन किस स्टेशन पर है।
       अब जो रेलवे वाले "पी.आई. बिल्डिंग" बना रहे हैं, उनकी बनावट हर स्टेशन पर बिलकुल एक-जैसी होती है- खड़ूस किस्म की डिजाइन। "कला" और "रचना" से कोई वास्ता नहीं! उनकी अपनी कोई पहचान नहीं होती।  
       बचपन में मैं भी सोचता था कि स्टेशनों के भवन एक-जैसे क्यों नहीं होते, मगर बाद में समझा- इनका अलग-अलग होना बेहद जरूरी है। हर स्टेशन-भवन की अपनी एक पहचान होती है, जो उस शहर के साथ जुड़ जाती है।
       यहाँ तक ध्यान रखा जाता था कि उस शहर की संस्कृति की छाप स्टेशन भवन में झलके!
       लगता है रेलवे ने इस खूबसूरत नीति का परित्याग कर दिया है....
       अफसोस!

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