जगप्रभा

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रविवार, 13 मई 2018

201. "हागड़ा"

अभी तक जरुरत नहीं पड़ी थी; मगर पिछ्ले दिनों जब एक करीबी की चिकित्सा जाँच में गुर्दे की खराबी की समस्या सामने आयी, तो हमें (इण्टरनेट पर) गुर्दे के सम्बन्ध में थोड़ा अध्ययन करना पड़ा।
पता चला कि खराब गुर्दों को फिर से स्वस्थ बनाने के लिए कोई इंजेक्शन या दवा होती ही नहीं है! डॉक्टर सीधे डायलिसिस या फिर गुर्दा-प्रत्यारोपण (किडनी-ट्रान्सप्लाण्ट) की सलाह देते हैं। जो दवाईयाँ वे चलाते हैं, वे रक्त में हीमोग्लोबीन की मात्रा बढ़ाने; शरीर में पोषक-तत्वों की आपूर्ति करने; ब्लड-प्रेशर, थायराइड, शूगर इत्यादि को नियंत्रित करने के लिए होती हैं (अगर इनकी समस्या है, तो)। सीधे किडनी को लाभ पहुँचाने वाली कोई दवा नहीं होती! हाँ, 'डाइट-कण्ट्रोल' एक जरुरी चीज बतायी जाती है।  
ऐसा क्यों है? दवाईयों पर शोध करने वाले वैज्ञानिक कर क्या रहे हैं? तब मेरा ध्यान गया कि रक्तचाप (ब्लडप्रेशर) और मधुमेह (डायबिटिज) को भी खत्म करने के लिए दवा नहीं बनती है- शायद, जहाँ तक मेरी जानकारी है। इन मामलों में डॉक्टर दवाओं के साथ बाकी जिन्दगी बिताने की सलाह देते हैं।
माजरा क्या है? क्या दवा और शल्यक्रिया से जुड़ी कम्पनियों का दवाब है वैज्ञानिकों पर कि वे ऐसी बीमारियों को ठीक करने वाली दवाईयों या इंजेक्शनों की खोज न करें?
हमने एक डॉक्टर भाई (कजिन) से सम्पर्क किया, तो उसने खान-पान में नियंत्रण  (डाइट-कण्ट्रोल) के साथ गहरी श्वांस भरने (डीप-ब्रीदिंग) का सुझाव दिया।  
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खैर। नेट पर यह जनकारी मिली कि आयुर्वेद वाले खराब गुर्दों को पूर्णतः स्वस्थ बनाने का दावा करते हैं। हमने एक आयुर्वेद अस्पताल से सम्पर्क किया। एक महीने की दवा का खर्च आठ-नौ हजार बताया गया। साथ में खान-पान में नियंत्रण (डाइट-कण्ट्रोल) तथा प्राणायाम को जरूरी बताया गया।
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थोड़ा और अध्ययन करने पर एक घरेलू-चिकित्सा भी नजर आयी। वह थी- ''गोखरू-काँटे' के काढ़े' का सेवन। डॉक्टर ऐसी चीजों का मजाक उड़ाते हैं। कहते हैं- कुछ भी कर लो, कहीं भी चले जाओ, कोई भी जड़ी-बूटी खा लो, अन्त में किडनी ट्रांसप्लाण्ट करना ही होगा! ऐसे में, स्वाभाविक रुप से, इतनी गम्भीर बीमारी में घरेलू-चिकित्सा आजमाने की हिम्मत भी कैसे हो?
लेकिन फिर याद आता है, फिल्म "आनन्द" का आखिरी दृश्य- जब राजेश खन्ना आखिरी साँसे गिन रहे होते हैं और अमिताभ बच्चन एक होम्योपैथिक दवा की खोज में भागे जाते हैं- सुना है कि होम्योपैथी में कोई दवा है, जो लग जाय, तो मिराकल कर देती है!
...तो एक विकल्प को आजमाने में हर्ज ही क्या है?
डॉक्टर साहेबान, आपके पास खराब गुर्दों को स्वस्थ बनाने की कोई दवा नहीं है; आपने ब्लड-प्रेशर, थायराइड, हीमोग्लोबीन, न्युट्रीएण्ट्स इत्यादि की दवाइयाँ महीने भर के लिए दे रखी हैं। आपने परिजनों को किडनी-ट्रान्सप्लाण्ट के लिए तैयार रहने को कह रखा है; ऐसे में, जब हमारे पास बीस-पच्चीस दिनों का समय है, तो आपकी दवाईयों के साथ ही साथ इस घरेलू नुस्खे को क्यों न आजमायें?
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खैर, तो वह नुस्खा है- गोखरू-काँटे के काढ़े का सेवन। गोखरू खेतों में उगने वाला एक पौधा है, जिसकी पत्तियाँ लाजवन्ती के पौधों-जैसी होती है। इसमें छोटे-छोटे काँटेदार फल लगते हैं। इन्हीं काँटेदार फलों के काढ़े को पीने की सलाह दी जाती है।
काढ़ा बनवा दिया गया है, आज सुबह-शाम उसकी खुराक ली जा चुकी है। दो-चार दिनों में फायदा नजर आना चाहिए। दो-तीन हफ्ते बाद होने वाली जाँच में अगर क्रेटेनाईन-लेवल नीचे गिरता हुआ नजर आता है, तो इसका मतलब यही होगा कि यह काढ़ा काम कर रहा है।
सोशल मीडिया पर श्री ओमप्रकाश सिंह साहब इस नुस्खे को "रामवाण" बताते हैं- अपने अनुभव के आधार पर। उनके आलेख का लिंक इस प्रकार है:
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अब आप कहेंगे कि इस आलेख का शीर्षक "हागड़ा" क्यों है? तो बात ऐसी है कि जब गोखरू-काँटा लाया गया, तो महिलाओं ने इसे पहचान लिया- अरे, यह तो खेत के गेहूँ के साथ आ जाता था पहले। टोकरी में गेहूँ भरकर तालाब के पानी में गेहूँ को डुबोते ही ये काँटे पानी में तैरने लगते थे। खेतों की मेड़ों से गुजरते वक्त ये काँटे साड़ी से चिपक जाते थे, तब गाँव की महिलायें बताती थीं- देखो, "हागड़ा" के कितने काँटे चिपक गये हैं साड़ी से!  
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